सिख धर्म

भारत के पंजाब क्षेत्र से उत्पन्न धर्म


सिख धर्म (खालसा या सिखमत; पंजाबी: ਸਿੱਖੀ) 15वीं सदी में जिसकी शुरुआत गुरु नानक देव जी ने की थी। सिखों के धार्मिक ग्रन्थ श्री आदि ग्रंथ साहिब या गुरु ग्रन्थ साहिब तथा दसम ग्रन्थ हैं। सिख धर्म में इनके धार्मिक स्थल को गुरुद्वारा कहते हैं। आमतौर पर सिखों के दस सतगुरु माने जाते हैं, लेकिन सिखों के धार्मिक ग्रंथ में छः गुरुओं सहित तीस भगतों की बानी है, जिन की सामान शिक्षाओं को सिख मार्ग पर चलने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

सिख धर्म

अकाली-निहांग सिख योद्धा हरमंदिर साहिब में, को स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है
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सिख धर्म
पर एक श्रेणी का भाग

Om
सिख सतगुरु एवं भक्त
सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव
सतगुरु अमर दास  · सतगुरु राम दास ·
सतगुरु अर्जन देव  ·सतगुरु हरि गोबिंद  ·
सतगुरु हरि राय  · सतगुरु हरि कृष्ण
सतगुरु तेग बहादुर  · सतगुरु गोबिंद सिंह
भक्त रैदास जी भक्त कबीर जी · शेख फरीद
भक्त नामदेव
धर्म ग्रंथ
आदि ग्रंथ साहिब · दसम ग्रंथ
सम्बन्धित विषय
गुरमत ·विकार ·गुरू
गुरद्वारा · चंडी ·अमृत
नितनेम · शब्दकोष
लंगर · खंडे बाटे की पाहुल

1469 ईस्वी में पंजाब में जन्मे नानक देव ने गुरमत को खोजा और गुरमत की सिख्याओं को देश देशांतर में खुद जा कर फैलाया था। सिख उन्हें अपना पहला गुरु मानते हैं। गुरमत का परचार बाकि 9 गुरुओं ने किया। 10वे गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ये परचार खालसा को सोंपा और ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब की शिक्षाओं पर अम्ल करने का उपदेश दिया। इसकी धार्मिक परम्पराओं को गुरु गोबिन्द सिंह ने 30 मार्च 1699 के दिन अंतिम रूप दिया।[1] विभिन्न जातियों के लोग ने सिख गुरुओं से दीक्षा ग्रहणकर ख़ालसा पन्थ को सजाया। पाँच प्यारों ने फिर गुरु गोबिन्द सिंह को अमृत देकर ख़ालसे में शामिल कर लिया।[2] इस ऐतिहासिक घटना ने सिख पंंथ के तक़रीबन 300 साल के इतिहास को पूर्ण रूप दिया। संत कबीर, धना, साधना, रामानंद, परमानंद, नामदेव इतियादी, जिन की बानी आदि ग्रंथ में दर्ज है, उन भगतों को भी सिख सतगुरुओं के सामान मानते हैं और उन कि सीखों पर अमल करने कि कोशिश करते हैं। सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है।

परिचयसंपादित करें

भारत में सिख पंथ का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए । उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे की दृढ़ नीव पर सिख धर्म की स्थापना की। ताज़्जुब नहीं कि एक उदारवादी दृष्टिकोण से गुरुनानक देव ने सभी धर्मों की अच्छाइयों को समाहित किया। उनका मुख्य उपदेश था कि ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए सभी समान हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि ईश्वर सत्य है और मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े।गुरुनानक ने अपने एक सबद में कहा है कि पण्डित पोथी (शास्त्र) पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। ये पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं।

पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचार।
आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू।
कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू॥६॥

(आदिग्रन्थ, पृ. 55)

गुरु अर्जुन देव तो यहाँ तक कहते हैं कि परमात्मा व्यापक है जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है-

सगल वनस्पति महि बैसन्तरु सगल दूध महि घीआ।
ऊँच-नीच महि जोति समाणी, घटि-घटि माथउ जीआ॥

(आदिग्रन्थ, पृ. 617)

सिख धर्म को मजबूत और मर्यादासम्पन्न बनाने के लिए गुरु अर्जुन-देव ने आदि ग्रन्थ का संपादन करके एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया। उन्होंने आदि ग्रन्थ में पाँच सिख गुरुओं के साथ 15 संतों एवं 14 रचनाकारों की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव। शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर साहेब, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास 15 संतों की वाणी को आदिग्रन्थ में संग्रहीत करके गुरुजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप जैसे 14 रचनाकारों की रचनाओं को आदिग्रन्थ में स्थान देकर उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरु अर्जुन देव के सामने धर्म जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया।

स्वर्ण मंदिर परिसर का विस्तृत दृष्य

उन्हें मालूम था इन सभी गुरुओं, संतों एवं कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। उल्लेखनीय है कि गुरु अर्जुनदेव ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन-कार्य 1604 ई. में पूर्ण किया था तब उसमें पहले पाँच गुरुओं की वाणियाँ थीं। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर साहेब के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतों के एक से चार पदों का आदि ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। गौरतलब है कि आदि ग्रंथ में संग्रहीत ये रचनाएँ गत 400 वर्षों से अधिक समय के बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। लेकिन अपने देहावसान के पूर्व गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिखों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए गुरु ग्रन्थ साहब और उनके सांसारिक दिशा-निर्देशन के लिए समूचे खालसा पंथ को ‘गुरु पद’ पर आसीन कर दिया। उस समय आदिग्रन्थ गुरु साहब के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।

सिख धर्म को कालजयी बनाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने सभी धर्मों और जातियों के लोगों को गुरु-शिष्य-परम्परा में दीक्षित किया। उन्होंने आने वाली शताब्दियों के लिए इस नए मनुष्य का सृजन किया। यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संरचना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी।

यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ।

सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है।

सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है।

पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी को आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है। सिख गुरुओं का इतिहास उठाकर देख लीजिए, उन्होंने साम्राज्यवादी अवधारणा कतई नहीं बनाई, उल्टे सांस्कृति, क धार्मिक एवं आध्यात्मिक सामंजस्य के माध्यम से मानवतावादी संसार की दृष्टि ही करते रहे। आज़ादी के पूर्व, भारत-पाक विभाजन एवं इसके बाद कई दशकों में पंजाब में समय-समय पर आए हिंसात्मक-ज़लज़लों एवं निर्दयी विध्वंसों के बावजूद इस धरती के लोगों ने अपना शान्तिपूर्ण अस्तित्व बनाए रखा है। कौंध इनका मार्गदर्शन करती रही है।

इतिहाससंपादित करें

सिख पंथ का इतिहास, पंजाब का इतिहास और दक्षिण एशिया (मौजूदा पाकिस्तान और भारत) के 16वीं सदी के सामाजिक-राजनैतिक महौल से बहुत मिलता-जुलता है। दक्षिण एशिया पर मुग़लिया सल्तनत के दौरान (1556-1707), लोगों के मानवाधिकार की हिफ़ाज़ात हेतु सिखों के संघर्ष उस समय की हकूमत से थी, इस कारण से सिख गुरुओं ने मुस्लिम मुगलों के हाथो बलिदान दिया।[3][4] इस क्रम के दौरान, मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का फ़ौजीकरण हुआ। सिख मिसलों के अधीन 'सिख राज' स्थापित हुआ और महाराजा रणजीत सिंह के हकूमत के अधीन सिख साम्राज्य, जो एक ताक़तवर साम्राज्य होने के बावजूद इसाइयों, मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए धार्मिक तौर पर सहनशील और धर्म निरपेक्ष था। आम तौर पर सिख साम्राज्य की स्थापना सिख धर्म के राजनैतिक तल का शिखर माना जाता है,[5] इस समय पर ही सिख साम्राज्य में कश्मीर, लद्दाख़ और पेशावर शामिल हुए थे। हरी सिंह नलवा, ख़ालसा फ़ौज का मुख्य जनरल था जिसने ख़ालसा पन्थ का नेतृत्व करते हुए ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार दर्र-ए-ख़ैबर पर फ़तह हासिल करके सिख साम्राज्य की सरहद का विस्तार किया। धर्म निरपेक्ष सिख साम्राज्य के प्रबन्ध के दौरान फ़ौजी, आर्थिक और सरकारी सुधार हुए थे।

1947 के बाद पंजाब का बँटवारा की तरफ़ बढ़ रहे महीनों के दौरान, पंजाब में सिखों और मुसलमानों के दरम्यान तनाव वाला माहौल था, जिसने पश्चिम पंजाब के सिखों और हिन्दुओं और दूसरी ओर पूर्व पंजाब के मुसलमानों का प्रवास संघर्षमय बनाया।

सिख गुरुसंपादित करें

सिखों के दस गुरु है।

क्रमांकनामगुरगदीप्रकाश उत्सवजोती जोतआयुअपितामाता
गुरू नानक देव१५ अप्रैल १४६९१५ अप्रैल १४६९२२ सतंबर १५३९६९महिता कालूमाता त्रिपता
गुरू अंगद देव७ सतंबर १५३९३१ मारच १५०४२९ मारच १५५२४८बाबा फेरू मੱलमाता रामो
गुरू अमरदास२५ मारच १५५२५ मई १४७९१ सतंबर १५७४९५तेज भानमाता बख़त कौर
गुरू रामदास२९ अगसत १५७४२४ सतंबर १५३४१ सतंबर १५८१४७बाबा हरीदासमाता दइआ कौर
गुरू अरजन देव२८ अगसत १५८११५ अप्रैल १५६३३० मई १६०६४३गुरू रामदासमाता भानी
गुरू हरगोबिंद३० मई १६०६१९ जून 1१५९५३ मारच १६४४४९गुरू अरजन देवमाता गंगा
गुरू हरिराइ२८ ಫरवरी १६४४२६ ಫरवरी १६३०६ अकतूबर १६६१३१बाबा गुरदिੱतामाता निहाल कौर
गुरू हरि क्रिशन६ अकतूबर १६६१७ जुलाई १६५६३० मारच १६६४गुरू हरिराइमाता क्रिशन कौर
गुरू तेग बहादुर२० मारच १६६५१ अप्रैल १६२१११ नवंबर १६७५५४गुरू हरगोबिंदमाता नानकी
१०गुरू गोविन्द सिंह११ नवंबर १६७५२२ दसंबर १६६६६ अकतूबर १७०८४२गुरू तेग बहादरमाता गूजरी

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जीसंपादित करें

श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी सिखों का धार्मिक ग्रन्थ है।

विचारधारासंपादित करें

कृपाण, कंघा, कड़ा

निरंकारसंपादित करें

सिखमत की शुरुआत ही "एक" से होती है। सिखों के धर्म ग्रंथ में "एक" की ही व्याख्या हैं। एक को निरंकार, पारब्रह्म आदिक गुणवाचक नामों से जाना जाता हैं। निरंकार का स्वरूप श्री गुरुग्रंथ साहिब के शुरुआत में बताया है जिसको आम भाषा में 'मूल मन्त्र' कहते हैं।

१ओंकार, सतिनामु, करतापुरखु, निर्भाओ, निरवैरु, अकालमूर्त, अजूनी, स्वैभंग गुर पर्सादि॥जपु॥आदि सचु जुगादि सचु ॥है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥ पर मूल मन्त्र समाप्त होता है।

तकरीबन सभी धर्म इसी "एक" की आराधना करते हैं, लेकिन "एक" की विभिन्न अवस्थाओं का ज़िक्र व व्याख्या श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दी गई है वो अपने आप में निराली है।

जीव आत्मासंपादित करें

जीव आत्मा जो निराकार है, उस के पास निरंकार के सिर्फ ४ ही गुण व्याप्त है

औंकार, सतिनाम, करता पुरख, स्वैभंग

बाकी चार गुण प्राप्त करते ही जीव आत्मा वापस निरंकार में समां जाती है, लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जीव आत्मा को खुद को गुरमत के ज्ञान द्वारा समझना ज़रूरी है। इसे सिख धर्म में "आतम चिंतन" कहा जाता है।

आत्मा का निराकारी स्वरूप मन (आत्म), चित (परात्म), सुरत, बुधि, मति आदिक की जानकारी सिख धर्म के मूल सिख्याओं में दी जाती है। इन की गतिविधिओं को समझ कर इंसान खुद को समझ सकता है।

सिख धर्म की शुरुआत ही आतम ज्ञान से होती है। आत्मा क्या है? कहा से आई है? वजूद क्यों है? करना क्या है इतिहादी रूहानियत के विशे सिख प्रचार द्वारा पढाये जाते हैं। आत्मा के विकार क्या हैं, कैसे विकार मुक्त हो। आत्मा स्वयम निरंकार की अंश है। इसका ज्ञान करवाते करवाते निरंकार का ज्ञान हो जाता है।

पाप पुण्य दोउ एक सामानसंपादित करें

सिख्मत कार्मिक फल में यकीन नहीं रखता। अन्य धर्मो का कहना है कि प्रभु को अछे कर्म पसंद हैं और बुरे कर्मो वालों के साथ परमेश्वर बहुत बुरा करता है। लेकिन सिख धर्म के अनुसार इंसान खुद कुछ कर ही नहीं सकता। इंसान सिर्फ़ सोचने तक सीमित है करता वही है जो "हुक्म" में है, चाहे वो किसी गरीब को दान दे रहा हो चाहे वो किसी को जान से मार रहा हो। यही बात श्री गुरुग्रन्थ साहिब जी के शुरू में ही दृढ़ करवा दी थी :

हुक्मे अंदर सब है बाहर हुक्म न कोए
जो हिता है हुकम में ही होता है। हुक्म से बाहर कुछ नहीं होता।

इसी लिए गुरमत में पाप पुण्य को नहीं मन जाता। अगर इंसान कोई क्रिया करता है तो वो अंतर आत्मा के साथ आवाज़ मिला कर करे। यही कारण है की गुरमत कर्म कांड के विरुद्ध है। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त करने की कोशिश की।

चार पदार्थसंपादित करें

निम्नलिखित चार 'पदार्थ' मानव को अपने जीवनकाल में प्राप्त करना अनिवार्य है :

  • (१) ज्ञान पदार्थ या प्रेम पदार्थ : यह पदार्थ किसी से ज्ञान लेकर प्राप्त होता है। कहीं से गुरमत का ज्ञान पढ़ कर या समझ कर। भक्त लोक ये पदार्थ देते हैं। इसमे माया में रह कर माया से टूटने का ज्ञान है। सब विकारों को त्यागना और निरंकार को प्राप्ति करना ही विषये है।
  • (२) मुक्त पदार्थ: ज्ञान के बाद ही मुक्त है। माया की प्यास ख़त्म हो गयी है। मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं।
  • (३) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है।
  • (३)जन्म पदार्थ: ""नानक नाम मिले तां जीवां"", यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता है

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं:

ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन, कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत को

वस्तु पूजा का खंडनसंपादित करें

सिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है।

यही कारण है की सिखमत मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ़ है। सत्गुरुओं एवं भक्तों ने मूर्ती पूजकों को अँधा, जानवर इतियादी शब्दों से निवाजा है। उस की तस्वीर बने नहीं जा सकती। यही नहीं कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है।धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है।

अवतारवाद और पैगम्बरवाद का खंडनसंपादित करें

सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं।

पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"। भक्त समे दर समे पैदा होते हैं और निरंकार का सन्देश लोगों तक पहुंचाते हैं। सिखमत "ला इलाहा इल्ल अल्लाह (अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है )" से सहमत है लेकिन सिर्फ़ मुहम्मद ही रसूल अल्लाह है इस बात से सहमत नहीं। अर्जुन देव जी कहते हैं "धुर की बानी आई, तिन सगली चिंत मिटाई", अर्थात् मुझे धुर से वाणी आई है और मेरी सगल चिंताएं मिट गई हैं किओंकी जिसकी ताक में मैं बैठा था मुझे वो मिल गया है।

धार्मिक ग्रंथसंपादित करें

मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |

यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |

आदि ग्रंथसंपादित करें

आदि ग्रंथ/पोथी साहिब

आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |

भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |

आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |

दसम ग्रंथसंपादित करें

दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है।

गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है।

दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है।

अन्य ग्रन्थसंपादित करें

सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विषय मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैं

सिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |

आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं। और पुरातन ग्रन्थ की मदद के साथ साथ गुरमत को ध्यान में रखते हुए इतिहास लिख रहे हैं |

इन्हें भी देखेंसंपादित करें

कड़ियाँसंपादित करें

  1. "BBC History of Sikhism - The Khalsa". Sikh world history. BBC Religion & Ethics. 29 August 2003. मूल से 17 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2008-04-04.
  2. Singh, Patwant (2000). The Sikhs. Knopf. पपृ॰ 14. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-375-40728-6.
  3. Pashaura Singh (2005), Understanding the Martyrdom of Guru Arjan, Journal of Punjab Studies, 12(1), pages 29-62
  4. McLeod, Hew (1987). "Sikhs and Muslims in the Punjab". South Asia: Journal of South Asian Studies. 22 (s1): 155–165. डीओआइ:10.1080/00856408708723379.
  5. Lafont, Jean-Marie (16 May 2002). Maharaja Ranjit Singh: Lord of the Five Rivers (French Sources of Indian History Sources). USA: Oxford University Press. पपृ॰ 23–29. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-19-566111-7.
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